क़ासिम आध घंटे तक उस रूप की रानी के पैरो के पास सर झुकाये सोचता रहा कि उसे कैसे जगाऊँ। ज्यों ही वह करवट बदलती वह ड़र के मारे थरथरा जाता। वह बहादुरी जिसने मुलतान को जीता था, उसका साथ छोड़े देती थी।
एकाएक कसिम की निगाह एक सुनहरे गुलाबपोश पर पड़ी जो करीब ही एक चौकी पर रखा हुआ था। उसने गुलाबपोश उठा लिया और खड़ा सोचता रहा कि शहज़ादी को जगाऊँ या न जगाऊँ या न जगाउँ? सेने की डली पड़ी हुई देखकर हमं उसके उठाने में आगा-पीछा होता है, वही इस वक्त उसे हो रहा था। आखिरकार उसने कलेजा मजबूत करके शहजादी के कान्तिमान मुखमंण्डल पर गुलाब के कई छींटे दिये। दीपक मोतियों की लड़ी से सज उठा।
शहज़ादी ने चौंकर आंखें खोलीं और क़ासिम को सामने खड़ा देखकर फौरन मुंह पर नक़ाब खींच लिया और धीरे से बोली-मसरूर।
क़ासिम ने कहा-मसरूर तो यहां नही है, लेकिन मुझे अपना एक अदना जांबाज़ ख़ादिम समझिए। जो हुक्त होगा उसकी तामील में बाल बराबर उज्र न होगा।
शहज़ादी ने नक़ाब और खींच लिया और ख़ेमे के एक कोने में जाकर खड़ी हो गयी।
क़ासिम को अपनी वाक्-शक्ति का आज पहली बार अनुभव हुआ। वह बहुत कम बोलने वाला और गम्भीर आदमी था। अपने हृउय के भावों को प्रकट करने में उसे हमेशा झिझक होती थी लेकिन इस वक्त़ शब्द बारिश की बूंदो की तरह उसकी जबान पर आने लगे। गहरे पानी के बहाव में एक दर्द का स्वर पैदा हो जाता है। बोला-मैं जानता हूँ कि मेरी यह गुस्ताखी आपकी नाजुक तबियत पर नागवार गुज़री है।
हुजूर, इसकी जो सजा मुनाशिब समझें उसके लिए यह सर झुका हुआ है। आह, मै ही वह बदनसीब, काले दिल का इंसान हूँ जिसने आपके बुजुर्ग बाप और प्यारे भाईंयों के खून से अपना दामन नापाक किया है। मेरे ही हाथों मुलतान के हजारो जवान मारे गये, सल्तनत तबाह हो गयी, शाही खानदान पर मुसीबत आयी और आपको यह स्याह दिन देखना पडा। लेकिन इस वक्त़ आपका यह मुजरिम आपके सामने हाथ बांधे हाज़िर है। आपके एक इशारे पर वह आपके कदमों पर न्योठावर हो जायेगा और उसकी नापाक जिन्दगी से दुनिया पाक हो जायेगी। मुझे आज मालूम हुआ कि बहादुरी के परदे में वासना आदमी से कैसे-कैसे पाप करवाती है।
यह महज लालच की आग है, राख में छिपी हुईं सिर्फ़ एक कातिल जहर है, खुशनुमा शीशे में बन्द! काश मेरी आंखें पहले खुली होतीं तो एक नामवर शाही ख़ानदान यों खाक में न मिल जाता। पर इस मुहब्बत की शमा ने, जो कल शाम को मेरे सीने में रोशन हुई, इस अंधेरे कोने को रोशनी से भर दिया। यह उन रूहानी जज्ब़ात का फैज है, जो कल मेरे दिल में जाग उठे, जिन्होंने मुझे लाजच की कैद से आज़ाद कर दिया।
इसके बाद क़ासिम ने अपनी बेक़रारी और दर्दे दिल और वियोग की पीड़ा का बहुत ही करूण शदों में वर्णन किया, यहां तक कि उसके शब्दों का भण्डार खत्म हो गया। अपना हाल कह सुनाने की लालसा पूरी हो गयी।
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