बणी-ठणी राजस्थान की मोनालिसा
राजस्थान के इतिहास में राजा-रानियों आदि ने ही नहीं बल्कि तत्कालीन शाही परिवारों की दासियों ने भी अपने अच्छे बुरे कार्यों से प्रसिद्धि पायी है।
जयपुर की एक दासी रूपा ने राज्य के तत्कालीन राजनैतिक झगडों में अपने कुटिल षड्यंत्रों के जरिये राजद्रोह जैसे घिनोने, लज्जाजनक और निम्नकोटि के कार्य कर इतिहास में कुख्याति अर्जित की तो उदयपुर की एक दासी रामप्यारी ने मेवाड़ राज्य के कई तत्कालीन राजनैतिक संकट निपटाकर अपनी राज्य भक्ति, सूझ-बुझ व होशियारी का परिचय दिया और मेवाड़ के इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखवाने में सफल रही। पूर्व रियासत जोधपुर राज्य की एक दासी भारमली भी अपने रूप और सौंदर्य के चलते इतिहास में चर्चित और प्रसिद्ध है।
बणी-ठणी भी राजस्थान के किशनगढ़ रियासत के तत्कालीन राजा सावंत सिंह की दासी व प्रेमिका थी। राजा सावंत सिंह सौंदर्य व कला की कद्र करने वाले थे वे खुद बड़े अच्छे कवि व चित्रकार थे। उनके शासन काल में बहुत से कलाकारों को आश्रय दिया गया।
बणी-ठणी भी सौंदर्य की अदभुत मिशाल होने के साथ ही उच्च कोटि की कवयित्री थी। ऐसे में कला और सौंदर्य की कद्र करने वाले राजा का अनुग्रह व अनुराग इस दासी के प्रति बढ़ता गया। राजा सावंतसिंह व यह गायिका दासी दोनों कृष्ण भक्त थे। राजा की अपनी और आसक्ति देख दासी ने भी राजा को कृष्ण व खुद को मीरां मानते हुए राजा के आगे अपने आपको पुरे मनोयोग से पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया।
उनकी आसक्ति जानने वाली प्रजा ने भी उनके भीतर कृष्ण-राधा की छवि देखी और दोनों को कई अलंकरणों से नवाजा जैसे- राजा को नागरीदास, चितवन, चितेरे,अनुरागी, मतवाले आदि तो दासी को भी कलावंती, किर्तिनिन, लवलीज, नागर रमणी, उत्सव प्रिया आदि संबोधन मिले वहीं रसिक बिहारी के नाम से वह खुद कविता पहले से ही लिखती थी।
एक बार राजा सावंतसिंह ने जो चित्रकार थे इसी सौंदर्य और रूप की प्रतिमूर्ति दासी को राणियों जैसी पौशाक व आभूषण पहनाकर एकांत में उसका एक चित्र बनाया। और इस चित्र को राजा ने नाम दिया बणी-ठणी । राजस्थानी भाषा के शब्द बणी-ठणी का मतलब होता है सजी-संवरी,सजी-धजी ।राजा ने अपना बनाया यह चित्र राज्य के राज चित्रकार निहालचंद को दिखाया। निहालचंद ने राजा द्वारा बनाए उस चित्र में कुछ संशोधन बताये।
संशोधन करने के बाद भी राजा ने वह चित्र सिर्फ चित्रकार के अलावा किसी को नहीं दिखाया। और चित्रकार निहालचंद से वह चित्र अपने सामने वापस बनवाकर उसे अपने दरबार में प्रदर्शित कर सार्वजानिक किया। इस सार्वजनिक किये चित्र में भी बनते समय राजा ने कई संशोधन करवाए व खुद भी संशोधन किये।
राजस्थान के इतिहास में राजा-रानियों आदि ने ही नहीं बल्कि तत्कालीन शाही परिवारों की दासियों ने भी अपने अच्छे बुरे कार्यों से प्रसिद्धि पायी है।
जयपुर की एक दासी रूपा ने राज्य के तत्कालीन राजनैतिक झगडों में अपने कुटिल षड्यंत्रों के जरिये राजद्रोह जैसे घिनोने, लज्जाजनक और निम्नकोटि के कार्य कर इतिहास में कुख्याति अर्जित की तो उदयपुर की एक दासी रामप्यारी ने मेवाड़ राज्य के कई तत्कालीन राजनैतिक संकट निपटाकर अपनी राज्य भक्ति, सूझ-बुझ व होशियारी का परिचय दिया और मेवाड़ के इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखवाने में सफल रही। पूर्व रियासत जोधपुर राज्य की एक दासी भारमली भी अपने रूप और सौंदर्य के चलते इतिहास में चर्चित और प्रसिद्ध है।
बणी-ठणी भी राजस्थान के किशनगढ़ रियासत के तत्कालीन राजा सावंत सिंह की दासी व प्रेमिका थी। राजा सावंत सिंह सौंदर्य व कला की कद्र करने वाले थे वे खुद बड़े अच्छे कवि व चित्रकार थे। उनके शासन काल में बहुत से कलाकारों को आश्रय दिया गया।
बणी-ठणी भी सौंदर्य की अदभुत मिशाल होने के साथ ही उच्च कोटि की कवयित्री थी। ऐसे में कला और सौंदर्य की कद्र करने वाले राजा का अनुग्रह व अनुराग इस दासी के प्रति बढ़ता गया। राजा सावंतसिंह व यह गायिका दासी दोनों कृष्ण भक्त थे। राजा की अपनी और आसक्ति देख दासी ने भी राजा को कृष्ण व खुद को मीरां मानते हुए राजा के आगे अपने आपको पुरे मनोयोग से पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया।
उनकी आसक्ति जानने वाली प्रजा ने भी उनके भीतर कृष्ण-राधा की छवि देखी और दोनों को कई अलंकरणों से नवाजा जैसे- राजा को नागरीदास, चितवन, चितेरे,अनुरागी, मतवाले आदि तो दासी को भी कलावंती, किर्तिनिन, लवलीज, नागर रमणी, उत्सव प्रिया आदि संबोधन मिले वहीं रसिक बिहारी के नाम से वह खुद कविता पहले से ही लिखती थी।
एक बार राजा सावंतसिंह ने जो चित्रकार थे इसी सौंदर्य और रूप की प्रतिमूर्ति दासी को राणियों जैसी पौशाक व आभूषण पहनाकर एकांत में उसका एक चित्र बनाया। और इस चित्र को राजा ने नाम दिया बणी-ठणी । राजस्थानी भाषा के शब्द बणी-ठणी का मतलब होता है सजी-संवरी,सजी-धजी ।राजा ने अपना बनाया यह चित्र राज्य के राज चित्रकार निहालचंद को दिखाया। निहालचंद ने राजा द्वारा बनाए उस चित्र में कुछ संशोधन बताये।
संशोधन करने के बाद भी राजा ने वह चित्र सिर्फ चित्रकार के अलावा किसी को नहीं दिखाया। और चित्रकार निहालचंद से वह चित्र अपने सामने वापस बनवाकर उसे अपने दरबार में प्रदर्शित कर सार्वजानिक किया। इस सार्वजनिक किये चित्र में भी बनते समय राजा ने कई संशोधन करवाए व खुद भी संशोधन किये।
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