December 2018 - Best Love Story

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Friday, 28 December 2018

तमन्ना की कहानियाँ Part 4

December 28, 2018 0
तमन्ना की कहानियाँ Part 4

तमन्नाकी कहानियाँ




क़ासिम दबे पांव शहज़ादी के खेमे के पास आया, हालांकि दबे पांव आने की जरूरत न थी।

उस सन्नाटे में वह दौड़ता हुआ चलता तो भी किसी को खबर न होती। उसने ख़ेमे से कान लगाकर सुना, किसी की आहट न मिली। इत्मीनान हो गया।

 तब उसने कमर से चाकू निकाला और कांपते हुए हाथों से खेमे की दो-तीन रस्सियां काट डालीं। अन्दर जाने का रास्ता निकल आया। उसने अन्दर की तरफ़ झांका। एक दीपक जल रहा था।

 दो बांदियां फ़र्श पर लेटी हुई थीं और शहज़ादी एक मख़मली गद्दे पर सो रही थी। क़ासिम की हिम्मत बढ़ी। वह सरककर अन्दर चला गया, और दबे पांव शहजादी के क़रीब जाकर उसके दिल-फ़रेब हुस्न का अमृत पीने लगा।

उसे अब वह भय न था जो ख़ेमे में आते वक्त हुआ था। उसने जरूरत पड़ने पर अपनी भागने की राह सोच ली थी।

क़ासिम एक मिनट तक मूरत की तरह खड़ा शहजादी को देखता रहा। काली-काली लटें खुलकर उसके गालों को छिपाये हुए थी।

गोया काले-काले अक्षरों में एक चमकता हुआ शायराना खयाल छिपा हुआ था। मिट्टी की अस दुनिया में यह मजा, यह घुलावट, वह दीप्ति कहां? कासिम की आंखें इस दृश्य के नशे में चूर हो गयीं। उसके दिल पर एक उमंग बढाने वाला उन्माद सा छा गया, जो नतीजों से नहीं डरता था।

 उत्कण्ठा ने इच्छा का रूप धारण किया। उत्कण्ठा में अधिरता थी और आवेश, इच्छा में एक उन्माद और पीड़ा का आनन्द।

उसके दिल में इस सुन्दरी के पैरों पर सर मलने की, उसके सामने रोने की, उसके क़दमों पर जान दे देने की, प्रेम का निवेदन करने की , अपने गम का बयान करने की एक लहर-सी उठने लगी वह वासना के भवंर मे पड़ गया।



तमन्ना की कहानियाँ Part 3

December 28, 2018 0
तमन्ना की कहानियाँ  Part 3

तमन्ना की कहानियाँ



कासिम उत्सुकता से व्यग्र होकर कभी लेटता था, कभी उठ बैठता था, कभी टहलने लगता था।

 बार-बार दरवाजे पर आकर देखता, लेकिन पांचों ख्व़ाजासरा देंवों की तरह खडें नजर आते थे। क़ासिम को इस वक्त यही धुन थी कि शाहजादी का दर्शन क्योंकर हो।

 अंजाम की फ़िक्र, बदनामी का डर और शाही गुस्से का ख़तरा उस पुरज़ोर ख्वाहिश के नीचे दब गया था।

घड़ियाल ने एक बजाया। क़ासिम यों चौकं पड़ा गोया कोई  अनहोनी बात हो गयी। जैसे कचहरी में बैठा हुआ कोई फ़रियाद अपने नाम की पुकार सुनकर चौंक पड़ता है।
 ओ हो, तीन घंटों से सुबह हो जाएगी। खेमे उखड़ जाएगें। लश्कर कूच कर देगा। वक्त तंग है, अब देर करने की, हिचकचाने की गुंजाइश नहीं।
कल दिल्ली पहुँच जायेंगे। आरमान दिल में क्यों रह जाये, किसी तरह इन हरामखोर ख्वाजासराओं को चकमा देना चाहिए। उसने बाहर निकल आवाज़ दी-मसरूर।

--हुजूर, फ़रमाइए।

--होशियार हो न?

-हुजूर पलक तक नहीं झपकी।

-नींद तो आती ही होगी, कैसी ठंड़ी हवा चल रही है।

-जब हुजूर ही ने अभी तक आराम नहीं फ़रमाया तो गुलामों को क्योंकर नींद आती।

-मै तुम्हें कुछ तकलीफ़ देना चाहता हूँ।

-कहिए।

-तुम्हारे साथ पांच आदमी है, उन्हें लेकर जरा एक बार लश्कर का चक्कर लगा आओ। देखो, लोग क्या कर रहे हैं। अक्सर सिपाही रात को जुआ खेलते हैं। बाज आस-पास के इलाक़ों में जाकर ख़रमस्ती किया करते हैं। जरा होशियारी से काम करना।

मसरूर- मगर यहां मैदान खाली हो जाएगा।

क़ासिम- मे तुम्हारे आने तक खबरदार रहूँगा।

मसरूर- जो मर्जी हुजूर।

क़ासिम- मैने तुम्हें मोतबर समझकर यह ख़िदमत सुपुर्द की है, इसका मुआवजा इंशाअल्ला तुम्हें साकर से अता होगा।

मसरूम ने दबी ज़बान से कहा-बन्दा आपकी यह चालें सब समझता है। इंशाअल्ला सरकार से आपको भी इसका इनाम मिलेगा। और तब जोर बोला-आपकी बड़ी मेहरबानी है।

एक लम्हें में पॉँचों ख्वाजासरा लश्कर की तरफ़ चले। क़ासिम ने उन्हें जाते देखा। मैदान साफ़ हो गया। अब वह बेधड़क खेमें में जा सकता था।

 लेकिन अब क़ासिम को मालूम हुआ कि अन्दर जाना इतना आसान नहीं है जितना वह समझा था। गुनाह का पहलू उसकी नजर से ओझल हो गया था। अब सिर्फ ज़ाहिरी मुश्किलों पर निगाह थी।



Thursday, 27 December 2018

तमन्ना की कहानियाँ Part 2

December 27, 2018 0
तमन्ना की कहानियाँ Part 2

तमन्ना की कहानियाँ



आधी रात गुजर चुकी थी, लश्कर के आदमी मीटी नींद सो रहे थे। चारों तरफ़ मशालें जलती थीं और तिलासे के जवान जगह-जगह बैठे जम्हाइयां लेते थे।

लेकिन क़ासिम की आंखों में नींद न थी। वह अपने लम्बे-चौड़े  पुरलुत्फ़ ख़ेमे में बैठा हुआ सोच रहा था—क्या इस जवान औरत को एक नजर देख लेना  कोई  बड़ा गुनाह है?

माना कि  वह मुलतान के राजा की शहजादी है और  मेरे बादशाह अपने हरम को उससे रोशन करना चाहते हैं लेकिन मेरी आरजू तो सिर्फ इतनी  है कि उसे एक निगाह देख लूँ  और वह भी इस तरह कि किसी को खबर न हो।

बस। और मान लो यह गुनाह भी हो तो मैं इस वक्त वह गुनाह करूँगा। अभी हजारों बेगुनाहों को इन्हीं हाथों से क़त्ल कर आया हूँ। क्या खुदा के दरबार में गुनाहों की माफ़ी सिर्फ़ इसलिए हो जाएगी कि बादशाह के हुक्म से किये गये? कुछ भी हो, किसी नाज़नीन को एक नजर देख लेना किसी की जान लेने से बड़ा गुनाह नहीं। कम से कम मैं ऐसा नहीं समझता।

क़ासिम दीनदार नौजवान था। वह देर तक इस काम के नैतिक  पहलू पर ग़ौर करता रहा। मुलतान  को फ़तेह  करने वाला हीरो दूसरी बाधाओं  को क्यों खयाल में लाता?

उसने अपने खेमे से बाहर निकलकर देखा, बेगमों के खेमे थोड़ी ही दूर पर गड़े हुए थे। क़ासिम ने तजान-बूझकर अपना खेमा उसके पास लगाया था।

 इन खेमों के चारों तरफ़ कई मशालें जल रही थीं और पांच हब्शी ख्वाजासरा रंगी तलवारें लिये टहल रहे थे। कासिम आकर मसनद पर लेट गया और सोचने लगा

—इन कम्बख्त़ों को क्या नींद न आयेगी? और चारों तरफ़  इतनी मशाले क्यों जला रक्खी हैं? इनका गुल होना जरूरी है।

इसलिए पुकारा—मसरूर।
-हुजुर, फ़रमाइए?
-मशालें बुझा दो, मुझे नींद नहीं आती।
-हुजूर, रात अंधेरी है।
-हां।
-जैसी हुजूर की मर्जी।

ख्व़ाजासरा चला गया और एक पल में सब की सब मशालें गुल हो गयीं, अंधेरा छा गया।

 थोड़ी देर में एक औरत शहजादी के खेमे से निकलकर पूछा-मसरूम, सरकमार पूछती हैं, यह मशालें क्यों बुझा दी गयीं?

मशरूम बोला-सिपहदार साहब की मर्जी। तुम लोग होशियार रहना, मुझे उनकी नियत साफ़ नहीं मालूम होती।


तमन्ना की कहानियाँ Part 1

December 27, 2018 0
तमन्ना की कहानियाँ Part 1

तमन्ना की कहानियाँ




बहादुर, भाग्यशाली क़ासिम मुलतान की लड़ाई जीतकर घमंउ के नशे से चूर चला आता था।

 शाम हो गयी थी, लश्कर के लोग आरामगाह की तलाश मे नज़रें दौड़ाते थे, लेकिन क़ासिम को अपने नामदार मालिक की ख़िदमत में पहुंचन का शौक उड़ाये लिये आता था।

उन तैयारियों का ख़याल करके जो उसके स्वागत के लिए दिल्ली में की गयी होंगी, उसका दिल उमंगो से भरपूर हो रहा था। सड़कें बन्दनवारों और झंडियों से सजी होंगी, चौराहों पर नौबतखाने अपना सुहाना राग अलापेंगे, ज्योंहि मैं सरे शहर  के अन्दर दाखिल हूँगा।

 शहर में शोर मच जाएगा, तोपें  अगवानी के लिए जोर-शोर से अपनी आवाजें बूलंद करेंगी।

 हवेलियों के झरोखों पर शहर की चांद जैसी सुन्दर स्त्रियां ऑखें  गड़ाकर मुझे देखेंगी और मुझ पर फूलों की बारिश करेंगी। जड़ाऊ हौदों पर दरबार के लोग मेरी अगवानी को आयेंगे।

इस शान से दीवाने खास तक जाने के बद जब मैं अपने हुजुर की ख़िदमत में पहुँचूँगा तो वह बॉँहे खोले हुए मुझे सीने से लगाने के लिए उठेंगे और मैं बड़े आदर से उनके पैरों को चूम लूंगा।

आह, वह शुभ घड़ी कब आयेगी? क़ासिम मतवाला हो गया, उसने अपने चाव की बेसुधी में घोड़े को एड़ लगायी।कासिम लश्कर के पीछे था। घोड़ा एड़ लगाते ही आगे बढा, कैदियों का झुण्ड पीछे छूट गया।

घायल सिपाहियों की डोलियां पीछे छूटीं, सवारों का दस्ता पीछे रहा। सवारों के आगे मुलतान के राजा की बेगमों और मैं उन्हें और शहजादियों की पनसें और सुखपाल थे।

 इन सवारियों के आगे-पीछे हथियारबन्द ख्व़ाजासराओं की एक बड़ी जमात थी।

 क़ासिम  अपने रौ में घोड़ा बढाये चला आता था। यकायक उसे एक सजी हुई पालकी में से दो आंखें झांकती हुई नजर आयीं।

क्रासिंग ठिठक गया, उसे मालूम हुआ कि मेरे हाथों के तोते उड़ गये, उसे अपने दिल में एक कंपकंपी, एक कमजोरी और बुद्धि पर एक उन्माद-सा  अनुभव हुआ। उसका आसन खुद-ब-खुद ढ़ीला पड़ गया। तनी हुई गर्दन झुक गयी।

 नजरें नीची हुईं। वह दोनों आंखें दो चमकते और नाचते हुए सितारों की तरह, जिनमें जादू का-सा आकर्षण था,

उसके आदिल के गोशे में बैठीं। वह जिधर ताकता था वहीं दोनों उमंग की रोशनी से चमकते हुए तारे नजर आते थे।

 उसे बर्छी नहीं लगी, कटार नहीं लगी, किसी ने उस पर जादू नहीं किया, मंतर नहीं किया, नहीं उसे अपने दिल में इस वक्त एक मजेदार बेसुधी, दर्द की एक लज्जत, मीठी-मीठी-सी एक कैफ्रियत और एक सुहानी चुभन से भरी हुई रोने की-सी हालत महसूस हो रही थी।

उसका रोने को जी चाहता था, किसी दर्द की पुकार सुनकर शायद वह रो पड़ता, बेताब  हो जाता। उसका दर्द का एहसास जाग उठा था जो इश्क की पहली मंजिल है।

क्षण-भर बाद उसने हुक्म दिया—आज हमारा यहीं कयाम होगा।


राव मालदेव - दासी भारमली Part2

December 27, 2018 0
राव मालदेव - दासी भारमली Part2
राव मालदेव - दासी भारमली






बारहट जी (कवि आशानन्द जी) ने अपने मन में अपने कहे गए शब्दों पर विचार किया और बहुत पछताए भी लेकिन वे शब्द वापस कैसे लिए जा सकते थे ।
आपने जोधपुर की रूठी रानी के बारे में पढ़ते हुए उसकी दासी भारमली का नाम भी पढ़ा होगा ।

 जैसलमेर की राजकुमारी उमादे जो इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध है अपनी इसी रूपवती दासी भारमली के चलते ही अपने पति जोधपुर के शक्तिशाली शासक राव मालदेव से रूठ गई थी और मालदेव के लाख कोशिश करने के बाद भी वह आजीवन अपने पति से रूठी ही रही ।

जोधपुर के राव मालदेव का विवाह जैसलमेर के रावल लूणकरणजी की राजकुमारी उमादे के साथ हुआ था । सुहागरात्रि के समय उमादे को श्रृंगार करते देर हो गई तो उसने अपनी दासी भारमली को कुछ देर के लिए मालदेव जी का जी बहलाने के लिए भेजा । भारमली इतनी सुन्दर थी कि उसके रूप लावण्य को देख नशे में धुत मालदेव जी अपने आप को न बचा सके ।

श्रृंगार करने के बाद जब उमादे आई और उसने मालदेव जी भारमली के साथ देखकर यह कहकर वापस चली गयी कि ये पति मेरे लायक नहीं है । और वो जीवन भर रूठी ही रही । राव मालदेव ने जोधपुर आने के बाद अपने एक कवि आशानन्द जी बारहट को रानी को मनाने भेजा पर वे भी रानी मनाने में असमर्थ रहे । इस पर कवि आशानन्द जी बारहट ने जैसलमेर के रावत लूणकरणजी से कहा कि अपनी पुत्री का भला चाहते है तो दासी भारमली को जोधपुर से वापस बुलवा लीजिए ।

रावत लूणकरण जी ने एसा ही किया और भारमली को उन्होंने जोधपुर से जैसलमेर बुलवा भेजा पर स्वयम लूणकरण जी भारमली के रूप और लावण्य पर मुग्ध हो गए जिससे लूणकरण जी की दोनों रानियाँ ने परेशान होकर भारमली को जैसलमेर से हटाने की सोची । लूणकरण जी की पहली रानी सोढ़ी जी ने उमरकोट अपने भाइयों से भारमली को ले जाने के लिए कहा लेकिन उमरकोट के सोढों ने लूणकरण जी से इस बात पर शत्रुता लेना उचित नहीं समझा ।तब लूणकरण जी की दूसरी रानी जो जोधपुर के मालानी परगने के कोटडे के शासक बाघ जी राठौड़ की बहन थी ने अपने भाई बाघ जी को बुलाया ।

बहन का दुःख मिटाने हेतु बाघजी शीघ्र आये और रानियों के कथनानुसार भारमली को ऊंट पर बैठकर जैसलमेर से छिपकर भाग आये । लूणकरण जी कोटडे पर हमला तो कर नहीं सकते थे क्योंकि पहली बात तो ससुराल पर हमला करने में उनकी प्रतिष्ठा घटती और दूसरी बात राव मालदेव जैसा शक्तिशाली शासक मालानी का संरक्षकथा । अत: रावत लूणकरण जी ने जोधपुर के ही कवि आशानन्द जी बारहट को कोटडा भेजा कि बाघजी को समझाकर भारमली को वापस ले आये ।

दोनों रानियों ने बाघ जी को पहले ही सन्देश भेजकर सूचित कर दिया कि वे बारहट जी की बातों में न आना । जब बारहट जी कोटडा पहुंचे तो बाघजी ने उनका बड़ा स्वागत सत्कार किया और बारहट जी की इतनी खातिरदारी की कि वे अपने आने का उद्देश्य ही भल गए । एक दिन बाघजी शिकार पर गए ,बारहट जी व भारमली भी साथ थे । भारमली व बाघजी में असीम प्रेम हो गया था अत: वह भी किसी भी हालत में बाघजी को छोड़कर जैसलमेर नहीं जाना चाहती थी । शिकार के बाद भारमली ने सूलें सेंक कर खुद विश्राम स्थल पर बारहट जी दी व शराब आदि भी पिलाई । इससे खुश होकर व बाघजी व भारमली के बीच प्रेम देखकर बारहट जी का भावुक-कवि- हृदय बोल उठा
जंह गिरवर तंह मोरिया, जंह सरवर तंह हंस ।
जंह बाघा तंह भारमली ,जंह दारु तंह मंस ।

अर्थात जहाँ पहाड़ होते है वहां मोर होते है ,जहाँ सरवर होता है वहां हंस होते है इसी प्रकार जहाँ बाघ जी है वहीँ भारमली होगी ठीक उसी तरह जिस तरह जहाँ दारू होती है वहां मांस भी होता है ।

बारहट की यह बात सुन बाघजी ने झट से कह दिया ,बारहट जी आप बड़े है और बड़े आदमी दी हुई वास्तु को वापिस नहीं लेते अत: अब भारमली को मुझसे न मांगना । आशानन्द जी बारहट पर वज्रपात सा हो गया लेकिन बाघजी ने बात सँभालते हुए कहा - कि आपसे एक प्रार्थना और है आप भी मेरे यहीं रहिये ।

और इस तरह से बाघजी ने कवि आशानन्द जी बारहट को मनाकर भारमली को जैसलमेर ले जाने से रोक लिया । आशानन्द जी भी कोटडा रहे और उनकी व बाघजी जी की भी इतनी घनिष्ट दोस्ती हुई कि वे जिन्दगी भर बाघजी को भुला ना पाए । एक दिन अकस्मात बाघजी का निधन हो गया , भारमली बाघजी के शव के साथ चिता में बैठकर सती हो गई और आशानन्द जी अपने मित्र बाघजी की याद में जिन्दगी भर बैचेन रहे और उन्होंने बाघजी की स्मृति में अपने उदगारों के पीछोले बनाये ।

बाघजी और कवि आशानंद जी के बीच इतनी घनिष्ट मित्रता हुई कि आशानन्द जी सोते उठते बाघजी का नाम ही लेते थे एक बार उदयपुर के महाराणा ने कवि आशानन्द जी की परीक्षा लेने के लिए कहा कि वे सिर्फ एक रात बाघजी का नाम लिए बिना निकाल दे तो मैं आपको चार लाख रूपये दूंगा । कवि पुत्र ने भरपूर कोशिश की कि कवि पिता अपने मित्र बाघजी का नाम कम से कम एक रात्री तो न ले पर कवि मन कहाँ चुप रहने वाला था ।

Tuesday, 25 December 2018

बणी-ठणी राजस्थान की मोनालिसा Part2

December 25, 2018 0
बणी-ठणी राजस्थान की मोनालिसा Part2
बणी-ठणी राजस्थान की मोनालिसा





इस चित्र की सर्वत्र बहुत प्रसंशा हुई और उसके बाद दासी का नाम बणी-ठणी पड़ गया। सब उसे बणी-ठणी के नाम से ही संबोधित करने लगे। चितेरे राजा के अलावा उनके चित्रकार को भी अपनी चित्रकला के हर विषय में राजा की प्रिय दासी बणी-ठणी ही आदर्श मोडल नजर आने लगी और उसने बणी-ठणी के ढेरों चित्र बनाये। जो बहुत प्रसिद्ध हुए और इस तरह किशनगढ़ की चित्रशैली को बणी-ठणी के नाम से ही जाना जाने लगा।

और आज किशनगढ़ कि यह बणी-ठणी चित्रकला शैली पुरे विश्व में प्रसिद्ध है। बणी-ठणी का पहला चित्र तैयार होने का समय संवत 1755-57 है। आज बेशक राजा द्वारा अपनी उस दासी पर आसक्ति व दोनों के बीच प्रेम को लेकर लोग किसी भी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करे या विश्लेषण करें पर किशनगढ़ के चित्रकारों को के लिए उन दोनों का प्रेम वरदान सिद्ध हुआ है क्योंकि यह विश्व प्रसिद्ध चित्रशैली भी उसी प्रेम की उपज है और इस चित्रशैली की देश-विदेश में अच्छी मांग है।

किशनगढ़ के अलावा भी राजस्थान के बहुतेरे चित्रकार आज भी इस चित्रकला शैली से अच्छा कमा-खा रहें है यह चित्रकला शैली उनकी आजीविका का अच्छा साधन है।
बणी-ठणी सिर्फ रूप और सौंदर्य की प्रतिमा व राजा की प्रेमिका ही नहीं थी वह एक अच्छी गायिका व कवयित्री थी। उसके इस साहित्यक पक्ष पर प्रकाश डालते हुए राजस्थानी भाषा के मूर्धन्य साहित्यकार सौभाग्य सिंह शेखावत लिखते है-
राजकुलीय परिवारों की राणियों महारानियों की भांति ही राजा महाराजाओं के पासवानों, पड़दायतों और रखैलों में कई नारियाँ अच्छी साहित्यकार हुई है। किशनगढ़ के ख्यातिलब्ध साहित्यकार महाराजा सावंतसिंह की पासवान बनीठनी उत्तम कोटि की कवयित्री और भक्त-हृदया नारी थी।

अपने स्वामी नागरीदास (राजा सावंत सिंह) की भांति ही बनीठनी की कविता भी अति मधुर, हृदय स्पर्शी और कृष्ण-भक्ति अनुराग के सरोवर है। वह अपना काव्य नाम रसिक बिहारी रखती थी। रसिक बिहारी का ब्रज, पंजाबी और राजस्थानी भाषाओँ पर सामान अधिकार था। रसीली आँखों के वर्णन का एक पद उदाहरणार्थ प्रस्तुत है-

रतनारी हो थारी आँखड़ियाँ ।
प्रेम छकी रस बस अलसारणी, जाणी कमाल पांखड़ियाँ ।
सुन्दर रूप लुभाई गति मति हो गई ज्यूँ मधु मांखड़ियाँ।
रसिक बिहारी वारी प्यारी कौन बसि निसि कांखड़ियाँ।।

रसिक प्रिया ने श्रीकृष्ण और राधिका के जन्म, कुञ्ज बिहार, रास-क्रीड़ा, होली, साँझ, हिंडोला, पनघट आदि विविध लीला-प्रसंगों का अपने पदों में वर्णन किया है। कृष्ण राधा लीला वैविध की मार्मिक अभिव्यक्ति पदों में प्रस्फुटित हुई है।

बणी-ठणी राजस्थान की मोनालिसा Part1

December 25, 2018 0
बणी-ठणी राजस्थान की मोनालिसा Part1
बणी-ठणी राजस्थान की मोनालिसा




राजस्थान के इतिहास में राजा-रानियों आदि ने ही नहीं बल्कि तत्कालीन शाही परिवारों की दासियों ने भी अपने अच्छे बुरे कार्यों से प्रसिद्धि पायी है।

जयपुर की एक दासी रूपा ने राज्य के तत्कालीन राजनैतिक झगडों में अपने कुटिल षड्यंत्रों के जरिये राजद्रोह जैसे घिनोने, लज्जाजनक और निम्नकोटि के कार्य कर इतिहास में कुख्याति अर्जित की तो उदयपुर की एक दासी रामप्यारी ने मेवाड़ राज्य के कई तत्कालीन राजनैतिक संकट निपटाकर अपनी राज्य भक्ति, सूझ-बुझ व होशियारी का परिचय दिया और मेवाड़ के इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखवाने में सफल रही। पूर्व रियासत जोधपुर राज्य की एक दासी भारमली भी अपने रूप और सौंदर्य के चलते इतिहास में चर्चित और प्रसिद्ध है।

बणी-ठणी भी राजस्थान के किशनगढ़ रियासत के तत्कालीन राजा सावंत सिंह की दासी व प्रेमिका थी। राजा सावंत सिंह सौंदर्य व कला की कद्र करने वाले थे वे खुद बड़े अच्छे कवि व चित्रकार थे। उनके शासन काल में बहुत से कलाकारों को आश्रय दिया गया।

बणी-ठणी भी सौंदर्य की अदभुत मिशाल होने के साथ ही उच्च कोटि की कवयित्री थी। ऐसे में कला और सौंदर्य की कद्र करने वाले राजा का अनुग्रह व अनुराग इस दासी के प्रति बढ़ता गया। राजा सावंतसिंह व यह गायिका दासी दोनों कृष्ण भक्त थे। राजा की अपनी और आसक्ति देख दासी ने भी राजा को कृष्ण व खुद को मीरां मानते हुए राजा के आगे अपने आपको पुरे मनोयोग से पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया।

उनकी आसक्ति जानने वाली प्रजा ने भी उनके भीतर कृष्ण-राधा की छवि देखी और दोनों को कई अलंकरणों से नवाजा जैसे- राजा को नागरीदास, चितवन, चितेरे,अनुरागी, मतवाले आदि तो दासी को भी कलावंती, किर्तिनिन, लवलीज, नागर रमणी, उत्सव प्रिया आदि संबोधन मिले वहीं रसिक बिहारी के नाम से वह खुद कविता पहले से ही लिखती थी।

एक बार राजा सावंतसिंह ने जो चित्रकार थे इसी सौंदर्य और रूप की प्रतिमूर्ति दासी को राणियों जैसी पौशाक व आभूषण पहनाकर एकांत में उसका एक चित्र बनाया। और इस चित्र को राजा ने नाम दिया बणी-ठणी । राजस्थानी भाषा के शब्द बणी-ठणी का मतलब होता है सजी-संवरी,सजी-धजी ।राजा ने अपना बनाया यह चित्र राज्य के राज चित्रकार निहालचंद को दिखाया। निहालचंद ने राजा द्वारा बनाए उस चित्र में कुछ संशोधन बताये।

संशोधन करने के बाद भी राजा ने वह चित्र सिर्फ चित्रकार के अलावा किसी को नहीं दिखाया। और चित्रकार निहालचंद से वह चित्र अपने सामने वापस बनवाकर उसे अपने दरबार में प्रदर्शित कर सार्वजानिक किया। इस सार्वजनिक किये चित्र में भी बनते समय राजा ने कई संशोधन करवाए व खुद भी संशोधन किये।




चौबोली की प्रेम कहानी Part3

December 25, 2018 0
चौबोली की प्रेम कहानी Part3
चौबोली की प्रेम कहानी




समय के साथ दोनों मित्र बड़े हुए तो साहूकार ने अपने बेटे का विवाह कर दिया। साहूकार की बहु घर आ गयी। सुहाग रात का समय, बहु रमझम करती, सोलह श्रृंगार किये अपने शयन कक्ष में घुसी, आगे देखा साहूकार का बेटा उसका पति मुंह लटकाए उदास बैठा था। साहूकारनी बड़ी चतुर थी अपने पति की यह हालत देख बड़े प्यार से हाथ जोड़कर बोली-

 क्या बात नाथ ! क्या आप मेरे से नाराज है ? क्या मैं आपको पसंद नहीं हूँ ? या मेरे माँ-बाप ने शादी में जो दिया वह आपको पसंद नहीं ? मैं जैसी भी हूँ आपकी सेवा में हाजिर हूँ।आपने मेरा हाथ थामा है मेरी लाज बचाना अब आपके हाथ में है।
साहूकार बोला-ऐसी बात नहीं है! मैं धर्म संकट में फंस गया हूँ । बचपन में नादानी के चलते अपने मित्र राजा के कुंवर से एक वचन कर लिए था जिसे न निभा सकता न तोड़ सकता, अब क्या करूँ ? समझ नहीं आ रहा।और न ही वचन के बारे में बताना आ रहा ।
ऐसा क्या वचन दिया है आपने! कृपया मुझे भी बताएं,यदि आपने कोई वचन दिया है तो उसे पूरा भी करेंगे। मैं भी आपका इसमें साथ दूंगी।

साहूकार पुत्र ने अपनी पत्नी को न चाहते हुए भी बचपन में किये वचन की कहानी सुनाई।
पत्नी बोली-हे नाथ ! चिंता ना करें।मुझे आज्ञा दीजिए मैं आपका वचन भी निभा लुंगी और अपना धर्म भी बचा लुंगी।
ऐसा कह पति से आज्ञा ले साहूकार की पत्नी सोलह श्रृंगार किये कुंवर के महल की ओर चली। रास्ते में उसे चोर मिले। उन्होंने गहनों से लदी साहूकार पत्नी को लूटने के इरादे से रोक लिया।

सहुकारनी चोरों से बोली- अभी मुझे छोड़ दीजिए, मैं एक जरुरी कार्य से जा रही हूँ, वापस आकार सारे गहने,जेवरात उतारकर आपको दे दूँगा ये मेरा वादा है।पर अभी मुझे मत रोकिये जाने दीजिए ।
चोर बोले-तेरा क्या भरोसा? जाने के बाद आये ही नहीं और आये भी तो सुपाहियों के साथ आये!
सहुकारनी बोली-  मैं आपको वचन देती हूँ। मेरे पति ने एक वचन दिया था उसे पूरा कर आ रही हूँ। वह पूरा कर आते ही आपको दिया वचन भी पूरा करने आवुंगी।
चोरों ने आपस में सलाह की कि-देखते है यह वचन पूरा करती है या नहीं, यदि नहीं भी आई तो कोई बात नहीं एक दिन लुट का माल न मिला सही।
सहुकारनी रमझम करती कुंवर के महल की सीढियाँ चढ गयी। कुंवर पलंग पर अपने कक्ष में सो रहा था। साहुकारनी ने कुंवर के पैर का अंगूठा मरोड़ जगाया-  जागो कुंवर सा।
कुंवर चौक कर जागा और देखा उसके कक्ष में इतनी रात गए एक सुन्दर स्त्री सोलह श्रृंगार किये खड़ी है। कुंवर को लगा वह सपना देख रहा है इसलिए कुंवर ने बार बार आँखे मल कर देखा और बोला -
हे देवी ! तुम कौन हो ? कहाँ से आई हो? और इस तरह इतनी रात्री गए तुम्हारा यहाँ आने का प्रयोजन क्या है ?

साहूकार की पत्नी बोली-  मैं आपके बचपन के मित्र साहूकार की पत्नी हूँ। आपके व आपके मित्र के बीच बचपन में तय हुआ था कि जिसकी शादी पहले होगी वह अपनी पत्नी को सुहाग रात में अपने मित्र के पास भेजेगा सो उसी वचन को निभाने हेतु आपके मित्र ने आज मुझे सुहाग रात्री के समय आपके पास भेजा है।
कुंवर को यह बात याद आते ही वह बहुत शर्मिंदा हुआ और अपने मित्र की पत्नी से बोला-
 हे देवी! मुझे माफ कर दीजिए वो तो बालपने में नादानी में हुयी बातें थी। आप तो मेरे लिए माँ- बहन समान है।
कहकर कुंवर ने मित्र की पत्नी को बहन की तरह चुन्दड़ी(ओढ़ना) सिर पर ओढ़ाई और एक हीरों मोतियों से भरा थाल भेंट कर विदा किया।
साहुकारनी वापस आई, चोर रास्ते में ही खड़े उसका इन्जार कर रहे थे उसे देख आपस में चर्चा करने लगे ये औरत है तो जबान की पक्की।
साहुकारनी ने चोरों के पास आकार बोला- यह हीरों मोतियों से भरा थाल रख लीजिए ये तुम्हारे भाग्य में ही लिखा था। और मैं अभी अपने गहने उतार कर भी आपको दे देती हूँ। कहकर साहुकारनी अपने एक एक कर सभी गहने उतारने लगी।
चोरों को यह देख बड़ा आश्चर्य हुआ वे पुछने लगे- पहले ये बता कि तूं गयी कहाँ थी ? और ये हीरों भरा थाल तुझे किसने दिया?
साहुकारनी ने पूरी बात विस्तार से चोरों को बतायी। सुनकर चोरों के मुंह से निकला-धन्य है ऐसी औरत! जो अपने पति का वचन निभाने कुंवर जी के पास चली गयी और धन्य है कुंवर जी जिन्होंने इसकी मर्यादा की रक्षा व आदर करते हुए इसे अपनी बहन बना इतने महंगे हीरे भेंट किये। ऐसी चरित्रवान और धर्म पर चलने वाली औरत को तो हमें भी बहन मानना चाहिए।
और चोरों ने भी उसे बहन मान उसका सारा धन लौटते हुए उनके पास जो थोड़ा बहुत लुटा हुआ धन था भी उसे भेंट कर उसे सुरक्षित उसके घर तक पहुंचा दिया।
अब मटकी राजा से बोली- हे राजा विक्रमादित्य! आपने बहुत बड़े बड़े न्याय किये है अब बताईये इस मामले में किसकी भलमनसाहत बड़ी चोरों की या कुंवर की
। राजा बोला-यह तो साफ है कुंवर की भलमनसाहत ज्यादा बड़ी।
इतना सुनते ही चौबोली को गुस्सा आ गया और वह गुस्से में राजा से बोली-  अरे राजा तेरी अक्ल कहाँ गयी ? क्या ऐसे ही न्याय करके तूं लोकप्रिय हुआ है! सुन - इस मामले में चोर बड़े भले मानस निकले।
जब सहुकारनी चोरों को वचन के मुताबिक इतना धन दें रही थी फिर भी चोरों ने उसे बहन बना पास में जो था वह भी दे दिया इसलिए चोरों की भलमनसाहत ज्यादा बड़ी है।
राजा बोला- चौबोली ने जो न्याय किया है वह खरा है।
बजा रे ढोली ढोल।
चौबोली बोली दूजो बोल।।
और ढोली ने नंगारे पर जोर से दो दे मारी धें - धें

अब राजा चौबोली के महल की खिड़की से बोला-दो घडी रात तो कट गयी अब तूं ही कोई बात कह ताकि तीसरा प्रहर कट सके।
खिड़की बोली- ठीक है राजा ! आपका हुक्म सिर माथे, मैं आपको कहानी सुना रही हूँ आप हुंकारा देते जाना। खिड़की राजा को कहानी सुनाने लगी-एक गांव में एक ब्राह्मण व एक साहूकार के बेटे के बीच बहुत गहरी मित्रता थी।जब वे जवान हुए तो एक दिन ससुराल अपनी पत्नियों को लेने एक साथ रवाना हुए कई दूर रास्ता काटने के बाद आगे दोनों के ससुराल के रास्ते अलग अलग हो गए। अत: अलग-अलग रास्ता पकड़ने से पहले दोनों ने सलाह मशविरा किया कि वापसी में जो यहाँ पहले पहुँच जाए वो दूसरे का इंतजार करे।

ऐसी सलाह कर दोनों ने अपने अपने ससुराल का रास्ता पकड़ा। साहूकार के बेटे के साथ एक नाई भी था। ससुराल पहुँचने पर साहूकार के साथ नाई को देखकर एक बुजुर्ग महिला ने अन्य महिलाओं को सलाह दी कि -जवांई जी के साथ आये नाई को खातिर में कहीं कोई कमी नहीं रह जाए वरना यह हमारी बेटी के सुसराल में जाकर हमारी बहुत उलटी सीधी बातें करेगा और इसकी बढ़िया खातिर करेंगे तो यह वहां जाकर हमारी तारीफों के पुरे गांव में पुल बांधेगा इसलिए इसलिय इसकी खातिर में कोई कमी ना रहें।

बस फिर क्या था घर की बहु बेटियों ने बुढिया की बात को पकड़ नाई की पूरी खातिरदारी शुरू करदी वे अपने जवांई को पूछे या ना पूछे पर नाई को हर काम में पहले पूछे, खाना खिलाना हो तो पहले नाई,बिस्तर लगाना हो तो पहले नाई के लगे। साहूकार का बेटा अपनी ससुराल में मायूस और नाई उसे देख अपनी मूंछ मरोड़े। यह देख मन ही मन दुखी हो साहूकार के बेटे ने वापस जाने की जल्दी की। ससुराल वालों ने भी उसकी पत्नी के साथ उसे विदा कर दिया। अब रास्ते में नाई साहूकार पुत्र से मजाक करते चले कि-  ससुराल में नाई की इज्जत ज्यादा रही कि जवांई की ? जैसे जैसे नाई ये डायलोग बोले साहूकार का बेटा मन ही मन जल भून जाए। पर नाई को इससे क्या फर्क पड़ने वाला था उसने तो अपनी डायलोग बाजी जारी रखी ऐसे ही चलते चलते काफी रास्ता कट गया। आधे रास्ते में ही साहूकार के बेटे ने इसी मनुहार वाली बात पर गुस्सा कर अपनी पत्नी को छोड़ नाई को साथ ले चल दिया।

इस तरह बीच रास्ते में छोड़ देने पर साहूकार की बेटी बहुत दुखी हुई और उसने अपना रथ वापस अपने मायके की ओर मोड़ लिया पर वह रास्ता भटक कर किसी और अनजाने नगर में पहुँच गयी। नगर में घुसते ही एक मालण का घर था, साहुकारनी ने अपना रथ रोका और कुछ धन देकर मालण से उसे अपने घर में कुछ दिन रहने के लिए मना लिया। मालण अपने बगीचे के फूलों से माला आदि बनाकर राजमहल में सप्लाई करती थी। अब मालण फूल तोड़ कर लाये और साहुकारनी नित नए डिजाइन के गजरे, मालाएं आदि बनाकर उसे राजा के पास ले जाने हेतु दे दे। एक दिन राजा ने मालण से पुछा कि -आजकल फूलों के ये इतने सुन्दर डिजाइन कौन बना रहा है ? तुझे तो ऐसे बनाने आते ही नहीं।
मालण ने राजा को बताया- हुकुम! मेरे घर एक स्त्री आई हुई है बहुत गुणवंती है वही ऐसी सुन्दर-सुन्दर कारीगरीयां जानती है।

राजा ने हुक्म दे दिया कि- उसे हमारे महल में हाजिर किया जाय। अब क्या करे? साहुकारनी ने बहुत मना किया पर राजा का हुक्म कैसे टाला जा सकता था सो साहुकारनी को राजा के सामने हाजिर किया गया। राजा तो उस रूपवती को देखकर आसक्त हो गया ऐसी सुन्दर नारी तो उसके महल में कोई नहीं थी। सो राजा ने हुक्म दिया कि -इसे महल में भेज दिया जाय। साहुकारनी बोली- हे राजन ! आप तो गांव के मालिक होने के नाते मेरे पिता समान है।मेरे ऊपर कुदृष्टि मत रखिये और छोड़ दीजिए।

पर राजा कहाँ मानने वाला था, नहीं माना, अत: साहुकारनी बोली- आप मुझे सोचने हेतु छ: माह का समय तो दीजिए। राजा ने समय दे दिया साथ ही उसके रहने के लिए गांव के नगर के बाहर रास्ते पर एक एकांत महल दे दिया।

साहुकारनी रोज उस महल के झरोखे से आते जाते लोगों को देखती रहती कहीं कोई ससुराल या पीहर का कोई जानपहचान वाला मिल जाए तो समाचार भेजें जा सकें।
उधर रास्ते में ब्राह्मण का बेटा अपने मित्र साहूकार का इन्तजार कर रहा था जब साहूकार को अकेले आते देखा तो वह सोच में पड़ गया उसने पास आते ही साहूकार के बेटे से उसकी पत्नी के बारे में पुछा तो साहूकार बेटे ने पूरी कहानी ब्राह्मण पुत्र को बताई।
ब्राह्मण ने साहूकार को खूब खरी खोटी सुनाई कि- 'बावली बूच नाई की खातिर ज्यादा हो गयी तो इसमें उसकी क्या गलती थी ? ऐसे कोई पत्नी को छोड़ा जा सकता है ?
और दोनों उसे लेने वापस चले, तलाश करते करते वे दोनों भी उसी नगर पहुंचे। साहुकारनी ने महल के झरोखे से दोनों को देख लिया तो बुलाने आदमी भेजा। मिलने पर ब्राह्मण के बेटे ने दोनों में सुलह कराई। राजा को भी पता चला कि उसका ब्याहता आ गया तो उसने भी अपने पति के साथ जाने की इजाजत दे दी।और साहूकार पुत्र अपनी पत्नी को लेकर घर आ गया।
कहानी पूरी कर खिड़की ने राजा से पुछा- हे राजा! आपके न्याय की प्रतिष्ठा तो सात समंदर दूर तक फैली है अब आप बताएं कि -इस मामले में भलमनसाहत किसकी ? साहूकार की या साहुकारनी की ?
राजा बोला- इसमें तो साफ़ है भलमनसाहत तो साहूकार के बेटे की। जिसने छोड़ी पत्नी को वापस अपना लिया।
इतना सुनते ही चौबोली के मन में तो मानो आग लग गयी हो उसने राजा को फटकारते हुए कहा-

अरे अधर्मी राजा! क्या तूं ऐसे ही न्याय कर प्रसिद्ध हुआ है ? साहूकार के बेटे की इसमें कौनसी भलमनसाहत ? भलमनसाहत तो साहूकार पत्नी की थी। जिसे निर्दोष होने के बावजूद साहूकार ने छोड़ दिया था और उसे रानी बनने का मौका मिलने के बावजूद वह नहीं मानी और अपने धर्म पर अडिग रही।धन्य है ऐसी स्त्री।

राजा बोला-  हे चौबोली जी ! आपने जो न्याय किया वही न्याय है।
बजा रे ढोली ढोल।
चौबोली बोली तीजो बोल।।
और ढोली ने नंगारे पर जोर से 'धें धें कर तीन ठोक दी।

चौबोली की प्रेम कहानी Part2

December 25, 2018 0
चौबोली की प्रेम कहानी Part2
चौबोली की प्रेम कहानी



आखिर दोनों मित्र साहूकार के बेटे की ससुराल चल दिए।रास्ते में राजा का बेटा तो बड़ी मस्ती से व मजाक करता चल रहा था और साहूकार का बेटा बड़ी चिंता में चल रहा था पता नहीं ससुराल वाले कुंवर की कैसी खातिर करेंगे यदि कोई कमी रह गयी तो कुंवर क्या सोचेगा आदि आदि।

चलते चलते रास्ते में एक देवी का मंदिर आया। जिसके बारे में ऐसी मान्यता थी कि वहां देवी के आगे जो मनोरथ मांगो पूरा हो जाता। कोढियों की कोढ़ मिट जाती, पुत्रहीनों को पुत्र मिल जाते। साहूकार के बेटे ने भी देवी के आगे जाकर प्रार्थना की- हे देवी माँ ! ससुराल में मेरे मित्र की खातिर व आदर सत्कार वैसा ही हो जैसी मैंने मन में सोच रखा है। यदि मेरे मन की यह मुराद पूरी हुई तो वापस आते वक्त मैं अपना मस्तक काटकर आपके चरणों में अर्पित कर दूँगा।

ऐसी मनोकामना कर वह अपने मित्र के साथ आगे बढ़ गया और ससुराल पहुँच गया। ससुराल वाले बहुत बड़े साहूकार थे, उनकी कई शहरों में कई दुकाने थी, विदेश से भी वे व्यापार करते थे इसके लिए उनके पास अपने जहाज थे। पैसे वाले तो थे ही साथ ही दिलदार भी थे उन्होंने अपने दामाद के साथ आये राजा के कुंवर को देखकर ऐसी मान मनुहार व आदर सत्कार किया कि उसे देखकर राजा का कुंवर खूद भौचंका रह गया। ऐसा सत्कार तो उसने कभी देखा ही नहीं था।
दोनों दस दिन वहां रहे उसके बाद साहूकार के बेटे की वधु को लेकर वापस चले। रास्ते में राजा का बेटा तो वहां किये आदर सत्कार की प्रशंसा ही करता रहा। साहूकार के बेटे ने जो मनोरथ किया था वो पूरा हो गया। रास्ते में देवी का मंदिर आया तो साहूकार का बेटा रुका।
बोला- आप चलें मैं दर्शन कर आता हूँ।
राजा का बेटा बोला- मैं भी चलूं दोनों साथ साथ दर्शन कर लेंगे।
साहूकार का बेटा- नहीं ! मैंने अकेले में दर्शन करने की मन्नत मांगी है इसलिए आप रुकिए।
साहूकार का बेटा मंदिर में गया और अपना सिस काटकर देवी के चरणों में चढा दिया। राजा के कुंवर ने काफी देर तक इन्तजार किया फिर भी साहूकार का बेटा नहीं आया तो वह भी मंदिर में जा पहुंचा। आगे देखा तो मंदिर में अपने मित्र का कटा सिर एक तरफ पड़ा था और धड एक तरफ।कुंवर के पैरों तले से तो धरती ही खिसक गयी। ये क्या हो गया? अब मित्र की पत्नी और उसके पिता को क्या जबाब दूँगा। कुंवर सोच में पड़ गया कि इस तरह बिना मित्र के घर जाए लोग क्या क्या सोचेंगे ? आज तक हम अलग नहीं रहे आज कैसे हो गए ? ये सब सोचते सोचते और विचार करते हुए कुंवर ने भी तलवार निकाली और अपना सिर काट कर डाला।

उधर साहूकार की वधु रास्ते में खड़ी खड़ी दोनों का इन्तजार करते करते थक गयी तो वह भी मंदिर के अंदर पहुंची और वहां का दृश्य देख हक्की बक्की रह गयी। दोनों मित्रों के सिर कटे शव पड़े थे।मंदिर में लहू बह रहा था। वह सोचने लगी कि - अब उसका क्या होगा? कैसे ससुराल में बिना पति के जाकर अपना मुंह दिखाएगी? लोग क्या क्या कहेंगे? यह सोच उसने भी तलवार उठाई और जोर से अपने पेट में मारने लगी तभी देवी माँ ने प्रकट हो उसका हाथ पकड़ लिया।

साहूकार की वधु देवी से बोली-  हे देवी! छोड़ दे मुझे और मरने दे। इन दोनों का तुने भक्षण कर लिया है अब मेरा भी कर ले।
देवी ने कहा- तलवार नीचे रख दे और दोनों के सिर उठा और इनके धड़ पर रख दे अभी दोनों को पुनर्जीवित कर देती हूँ। साहूकार की वधु ने झट से दोनों के सिर उठाये और धड़ों के ऊपर रख दिए। देवी ने अपने हाथ से उनपर एक किरण छोड़ी और दोनों जीवित हो उठे।देवी अंतर्ध्यान हो गयी।

पर एक गडबड हो गयी साहूकार की बहु ने जल्दबाजी में साहूकार का सिर कुंवर की धड़ पर और कुंवर का सिर साहूकार की धड़ पर रख दिया था। अब दोनों विचार में पड़ गए कि -अब ये पत्नी किसकी ? सिर वाले की या धड़ वाले की ? पलंग बोला- ' हे राजा ! विक्रमादित्य आप न्याय के लिए प्रसिद्ध है अत: आप ही न्याय करे वह अब किसकी पत्नी होगी? राजा बोला-  इसमें पुछने वाली कौनसी बात है ? वह महिला धड़ वाले की ही पत्नी होगी।

ये सुनते ही चौबोली बोली चमकी। गुस्से में भर कर बोली-  वाह ! राजा वाह ! बहुत बढ़िया न्याय करते हो। धड़ से क्या लेना देना, पत्नी तो सिर वाले की ही होगी। सिर बिना धड़ का क्या मोल।' राजा बोला- आप जो कह रही है वही सत्य है। बजा रे ढोली ढोल। चौबोली बोली पहला बोल।। और ढोली ने ढोल पर जोरदार डंका मारा  धे अब राजा ने चौबोली के कक्ष में रखे पानी के मटके को बतलाया- हे मटके! एक प्रहर तो पलंग ने काट दी अभी भी रात के तीन प्रहर बचे है।
तू  कोई बात बता ताकि कुछ तो समय कटे। मटका बोलने लगा राजा हुंकार देता गया - मटका- एक समय की बात है एक राजा का बेटा और एक साहूकार का बेटा बचपन से ही बड़े अच्छे मित्र थे। साथ रहते,साथ खेलते,साथ खाते-पीते। एक दिन उन्होंने बचपने व नादानी में आपस एक वचन किया कि -जिसकी शादी पहले होगी वह अपनी पत्नी को सुहाग रात को अपने मित्र के पास भेजेगा। समय बीता और बात आई गयी हो गयी।


चौबोली की प्रेम कहानी Part1

December 25, 2018 0
चौबोली की प्रेम कहानी Part1
चौबोली की प्रेम कहानी


एक दिन राजा विक्रमादित्य और उसकी एक रानी के साथ थोड़ी बहस हो गयी रानी कहने लगी- मैं रूठ गयी तो आपको मेरे जैसी रूपवती व गुणवान पत्नी कहाँ मिलेगी ?

राजा बोला-  मैं तो तेरे से भी सुन्दर व गुणवान ऐसी पत्नी ला सकता हूँ जिसका तूं तो किसी तरह से मुकाबला ही नहीं कर सकती।
रानी बोली- यदि ऐसे ही बोल बोल रहे है तो फिर चौबोली को परण कर लाओ तब जानूं ।
राजा तो उसी वक्त चौबोली से प्रणय करने चल पड़ा। चौबोली बहुत ही सुन्दर रूपवती, गुणवान थी हर राजा उससे प्रणय करने की ईच्छा रखते थे। पर चौबोली ने भी एक शर्त रखी हुई थी कि -
जो व्यक्ति रात्री के चार प्रहरों में चार बार उसके मुंह से बुलवा दे उसी से वह शादी करेगी और जो उसे न बुलवा सके उसे कैद । अब तक कोई एक सौ साठ राजा अपने प्रयास में विफल होकर उसकी कैद में थे।

चौबोली ने अपने महल के आगे एक ढोल रखवा रखा था जिसे भी उससे शादी करने का प्रयास करना होता था वह आकार ढोल पर डंके की चोट मार सकता था।

राजा विक्रमादित्य भी वहां पहुंचे और ढोल पर जोरदार चोट मार चौबोली को आने की सुचना दी। चौबोली ने सांय ही राजा को अपने महल में बुला लिया और उसके सामने सौलह श्रृंगार कर बैठ गयी। राजा ने वहां आने से पहले अपने चार वीर जो अदृश्य हो सकते थे व रूप बदल सकते थे को साथ ले लिया था और उन्हें समझा दिया था कि उसके साथ चौबोली के महल में रूप बदलकर छुप जाएं।

राजा चौबोली के सामने बैठ गया, चौबोली तो बोले ही नहीं ऐसे चुपचाप बैठी जैसे पत्थर हो। पर राजा भी आखिर राजा विक्रमादित्य था। वह चौबोली के पलंग से बोला-
पलंग चौबोली तो बोलेगी नहीं सो तूं ही कुछ ताकि रात का एक प्रहर तो कटे।

पलंग में छुपा राजा का एक वीर बोलने लगा- राजा आप यहाँ आकर कहाँ फंस गए ? खैर मैं आपको एक कहानी सुनाता हूँ आप हुंकारा दीजिए कम से कम एक प्रहर तो कट ही जायेगा।

पलंग बोलने लगा राजा हुंकारा देने लगा-  एक राजा का और एक साहूकार का बेटा, दोनों मैं तगड़ी दोस्ती थी। साथ सोते,साथ खेलते।साथ आते जाते। एक पल भी एक दूसरे से दूर नहीं होते।दोनों ने आपस में तय भी कर रखा था कि वे दोनों कभी अलग नहीं होंगे।

दोनों की शादियाँ भी हो चुकी थी और दोनों की ही पत्नियाँ मायके बैठी थी।एक दिन साहूकार अपने बेटे से बोला कि -बेटे तेरी बहु मायके में बैठी है जवान है उसे ज्यादा दिन वहां नहीं छोड़ा जा सकता सो जा और उसे ले आ।
बेटा बोला- बापू!आपका हुक्म सिर माथे पर जावूँ कैसे मैंने तो कुंवर से वादा कर रखा है कि उसे छोड़कर कहीं अकेला नहीं जाऊंगा।

साहूकार ने सोचते हुए कहा-  बेटे तुम दोनों में ऐसी ही मित्रता है तो एक काम कर राजा के बेटे को भी अपनी ससुराल साथ ले जा । पर एक बात ध्यान रखना तेरे ससुराल में उसकी खातिर उनकी प्रतिष्ठा के हिसाब से बड़े आव-भगत से होनी चाहिए।

राव मालदेव - दासी भारमली

December 25, 2018 0
राव मालदेव - दासी भारमली
राव मालदेव - दासी भारमली




मेड़ता के राव विरमदेव और राव जयमल के बारे में पढ़ते हुए आपने जोधपुर के शासक राव मालदेव के बारे में जरुर पढ़ा होगा । राव मालदेव अपने समय के राजपुताना के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक थे वे बहुत शूरवीर व धुनी व्यक्ति थे उन्होंने जोधपुर राज्य की सीमाओं का काफी विस्तार किया था उनकी सेना में राव जैता व कुंपा नामक शूरवीर सेनापति थे ।

यदि मालदेव राव विरमदेव व उनके पुत्र वीर शिरोमणि जयमल से बैर न रखते और जयमल द्वारा प्रस्तावित संधि मान लेते जिसमे राव जयमल ने शान्ति के लिए अपने पैत्रिक टिकाई राज्य जोधपुर की अधीनता तक स्वीकार करने की पेशकश की थी ।

जयमल जैसे वीर और जैता कुंपा जैसे सेनापतियों के होते राव मालदेव दिल्ली को फतह करने तक समर्थ हो जाते । राव मालदेव के ३१ वर्ष के शासन काल तक पुरे भारत में उनकी टक्कर का कोई राजा नही था । लेकिन ये परम शूरवीर राजा अपनी एक रूठी रानी को पुरी जिन्दगी मना नही सके और वो रानी मरते दम तक अपने शूरवीर पति राव मालदेव से रूठी रही ।

राव मालदेव का विवाह बैसाख सुदी ४ वि।स। १५९२ को जैसलमेर के शासक राव लुनकरण की राजकुमारी उमादे के साथ हुआ था । उमादे अपनी सुन्दरता व चतुरता के लिए प्रसिद्ध थी । राठोड राव मालदेव की बारात शाही लवाजमे के साथ जैसलमेर पहुँची । राजकुमारी उमादे राव मालदेव जैसा शूरवीर और महाप्रतापी राजा को पति के रूप में पाकर बहुत प्रसन्नचित थी ।

विवाह संपन्न होने के बाद राव मालदेव अपने सरदारों व सम्बन्धियों के साथ महफ़िल में बैठ गए और रानी उमादे सुहाग की सेज पर उनकी राह देखती-देखती थक गई ।

इस पर रानी ने अपनी खास दासी भारमली जिसे रानी को दहेज़ में दिया गया था को राव जी को बुलाने भेजा । दासी भारमली राव मालदेव जी को बुलाने गई, खुबसूरत दासी को नशे में चूर राव जी ने रानी समझ कर अपने पास बिठा लिया काफी वक्त गुजरने के बाद भी भारमली के न आने पर रानी जब राव जी कक्ष में गई और भारमली को उनके आगोस में देख रानी ने वह आरती वाला थाल जो राव जी की आरती के लिए सजा रखा था यह कह कर की अब राव मालदेव मेरे लायक नही रहे उलट दिया । प्रात: काल राव मालदेव जी नशा उतरा तब वे बहुत शर्मिंदा हुए और रानी के पास गए लेकिन तब तक वह रानी उमादे रूठ चुकी थी ।

और इस कारण एक शक्तिशाली राजा को बिना दुल्हन के एक दासी को लेकर वापस बारात लानी पड़ी । ये रानी आजीवन राव मालदेव से रूठी ही रही और इतिहास में रूठी रानी के नाम से मशहूर हुई ।

इस रानी के लिए किले की तलहटी में एक अलग महल भी बनवाया गया लेकिन वह वहां भी कुछ दिन रह कर वापस लौट गई । दो साल पहले जब एक मित्र को जोधपुर का किला दिखाने ले गया था तब गाइड ने किले के ऊपर से ही दूर से उस रूठी रानी का महल दिखाया था लेकिन कैमरा न होने वजह से उस वक्त उस महल का फोटो नही ले पाया ।कार्तिक सुदी १२ वि।स।१६१९ में जब राव मालदेव जी का निधन हुआ तब यह रानी उनके पीछे उनकी पगड़ी के साथ जलती चिता में प्रवेश कर सती हो गई ।

दासी भारमली के अलावा ज्योतिषी चंडू जी भी इस रानी को दहेज़ में दिए गए थे जिन्होंने अपनी पद्धति से एक पन्चांक बनाया जो चंडू पंचांक के नाम से प्रसिद्ध हुआ । वर्तमान में चंडू जी की १९ वी। पीढी के पंडित सुरजाराम जी यह पंचांक निकालते है ।

इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध जैसलमेर की उस राजकुमारी उमादे जो उस समय अपनी सुन्दरता व चतुरता के लिए प्रसिद्ध थी को उसका पति जो जोधपुर के इतिहास में सबसे शक्तिशाली शासक रहा ने क्या कभी उसे मनाने की कोशिश भी की या नहीं और यदि उसने कोई कोशिश की भी तो वे कारण थे कि वह अपनी उस सुन्दर और चतुर रानी को मनाने में कामयाब क्यों नहीं हुआ ।

आज उसी रानी की दासी भारमली उसके प्रेमी बाघ जी के बारे में पढ़ते हुए मेरी इस जिज्ञासा का उत्तर भी मिला कि राव मालदेव अपनी रानी को क्यों नहीं मना पाए । ज्ञात हो इसी दासी भारमली के चलते ही रानी अपने पति राव मालदेव से रूठ गई थी । शादी में रानी द्वारा रूठने के बाद राव मालदेव जोधपुर आ गए और उन्होंने अपने एक चतुर कवि आशानन्द जी चारण को रूठी रानी उमादे को मना कर लाने के लिए जैसलमेर भेजा । स्मरण रहे चारण जाति के लोग बुद्धि से चतुर व अपनी वाणी से वाक् पटुता व उत्कृष्ट कवि के तौर पर जाने जाते है

राजस्थान का डिंगल पिंगल काव्य साहित्य रचने में चारण कवियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । राव मालदेव के दरबार के कवि आशानन्द चारण बड़े भावुक व निर्भीक प्रकृति व वाक् पटु व्यक्ति थे ।

जैसलमेर जाकर उन्होंने किसी तरह अपनी वाक् पटुता के जरिए उस रूठी रानी उमादे को राजा मालदेव के पास जोधपुर चलने हेतु मना भी लिया और उन्हें ले कर जोधपुर के लिए रवाना हो गए । रास्ते में एक जगह रानी ने मालदेव व दासी भारमली के बारे में कवि आशानन्द जी से एक बात पूछी । मस्त कवि कहते है समय व परिणाम की चिंता नहीं करता और उस निर्भीक व मस्त कवि ने भी बिना परिणाम की चिंता किये रानी को दो पंक्तियों का एक दोहे बोलकर उत्तर दिया -
माण रखै तो पीव तज, पीव रखै तज माण ।
दो दो गयंद न बंधही , हेको खम्भु ठाण ।।
अर्थात मान रखना है तो पति को त्याग दे और पति रखना है तो मान को त्याग दे लेकिन दो-दो हाथियों का एक ही स्थान पर बाँधा जाना असंभव है ।
अल्हड मस्त कवि के इस दोहे की दो पंक्तियों ने रानी उमादे की प्रसुप्त रोषाग्नि को वापस प्रज्वल्लित करने के लिए धृत का काम किया और कहा मुझे ऐसे पति की आवश्यकता नहीं । और रानी ने रथ को वापस जैसलमेर ले जाने का आदेश दे दिया ।




चितौड़ की रानी कर्मवती

December 25, 2018 0
चितौड़ की रानी कर्मवती
चितौड़ की रानी कर्मवती



सभी राजपूत रियासतों को एक झंडे के नीचे लाने वाले महाराणा सांगा  के निधन के बाद चितौड़ की गद्दी पर महाराणा रतन सिंह बैठे। राणा रतन सिंह के निधन के बाद उनके भाई विक्रमादित्य चितौड़ के महाराणा बने। विक्रमादित्य ने अपनी सेना में सात हजार पहलवान भर्ती किये।

इन्हें जानवरों की लड़ाई, कुश्ती, आखेट और आमोद प्रमोद ही प्रिय था। इन्हीं कारणों व इनके व्यवहार से मेवाड़ के सामंत खुश नहीं थे। और वे इन्हें छोड़कर बादशाह बहादुरशाह के पास व अन्यत्र चले गए। बहादुरशाह का भाई सिकन्दर सुल्तान बागी होकर राणा सांगा के समय चितौड़ की शरण में रहा था। उसने बहादुरशाह के खिलाफ संघर्ष हेतु चितौड़ के सेठ कर्माशाह से एक लाख रूपये की सहायता भी ली थी। जब बहादुरशाह ने रायसेन दुर्ग को घेरा तब चितौड़ की सेना ने उसकी सहायता की। इसी से नाराज होकर बहादुरशाह ने मुहम्मद असीरी, खुदाबखां को सेना सहित भेजकर 1532 ई। में चितौड़ पर आक्रमण किया व तीन दिन बाद ही खुद सेना सहित चितौड़ आ धमका।

चूँकि मेवाड़ का तत्कालीन शासक विक्रमादित्य अयोग्य शासक था। मेवाड़ के लगभग सभी सामंत उससे रूठे थे अत: जब मेवाड़ की राजमाता कर्मवती जिसे कर्णावती के नाम से जाना जाता है को समाचार मिलते सेठ पद्मशाह के हाथों दिल्ली के बादशाह हुमायूं को भाई मानते हुए राखी भेजी और मुसीबत में सहायता का अनुरोध किया। हुमायूं ने राजमाता को बहिन माना और उपहार आदि भेंट स्वरूप भेजे व सहायता के लिए रवाना होकर ग्वालियर तक पहुंचा। तभी उसे बहादुरशाह का संदेश मिला कि वह काफिरों के खिलाफ जेहाद कर रहा है। तब हुमायूं आगे नहीं बढ़ा और एक माह ग्वालियर में रुक कर आगरा चला गया।

विक्रमादित्य ने बहादुरशाह से संधि करने के प्रयास किये पर विफल रहा। बहादुरशाह ने सुदृढ़ मोर्चाबंदी कर चितौड़ पर तोपों से हमला किया। उसके पास असंख्य सैनिकों वाली सेना भी थी। जिसका विक्रमादित्य की सेना मुकाबला नहीं कर सकती थी, अत: राजमाता कर्मवती ने सुल्तान के पास दूत भेजकर संधि की वार्ता आरम्भ की और कुछ शर्तों के साथ संधि हो गई। परन्तु थोड़े दिन बाद बहादुरशाह ने संधि को ठुकराते हुए फिर चितौड़ की और कूच किया।

राजमाता कर्मवती को समाचार मिलते ही, उसने सभी नाराज सामंतो को चितौड़ की रक्षार्थ पत्र भेजा – यह आपकी मातृभूमि, मैं आपको सौंपती हूँ, चाहे तो इसे रखो अन्यथा दुश्मन को सौंप दो। इस पत्र से मेवाड़ में सनसनी फ़ैल गई। सभी सामंत मातृभूमि की रक्षार्थ चितौड़ में जमा हो गये। रावत बाघसिंह, रावत सत्ता, रावत नर्बत, रावत दूदा चुंडावत, हाड़ा अर्जुन, भैरूदास सोलंकी, सज्जा झाला, सिंहा झाला, सोनगरा माला आदि प्रमुख सामंतों ने मंत्रणा कर महाराणा विक्रमादित्य के छोटे भाई उदयसिंह जो उस वक्त शिशु थे को पन्ना धाय की देखरेख में बूंदी भेज दिया गया।

बहादुरशाह जनवरी 1535 ई। में चितौड़ पहुंचा और किला घेर लिया। उस वक्त अपने बागी सरदार मुहम्मद जमा के बहादुरशाह की शरण में आने से नाराज हुमायूं ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया। बहादुरशाह ने चितौड़ से घेरा उठाकर गुजरात बचाने हेतु प्रस्थान की सोची तभी उसके एक सरदार ने उसे बताया कि जब तक हम चितौड़ में काफिरों के खिलाफ जेहाद कर रहे है हुमायूं आगे नहीं बढेगा। हुआ भी ऐसा ही। हुमायूं सारंगपुर रुक गया और चितौड़ युद्ध के परिणामों की प्रतीक्षा करने लगा।

आखिर मार्च 1535 इ। में बहादुरसेना के तोपखाने के भयंकर आक्रमण से चितौड़ की दीवारें ढहने लगी। भयंकर युद्ध हुआ। चितौड़ के प्रमुख सामंत योद्धाओं के साथ महाराणा सांगा की राठौड़ रानी जवाहरबाई ने पुरुष वेष में आश्वारूढ़ होकर युद्ध संचालन किया। आखिर हार सामने देख राजपूतों Rajput warrior ने अपनी चिर-परिचित परम्परा जौहर और शाका करने का निर्णय लिया। 13 हजार क्षत्राणीयों ने गौमुख में स्नान कर, मुख में तुलसी लेकर पूजा पाठ के बाद विजय स्तंभ के सामने बारूद के ढेर पर बैठकर जौहर व्रत रूपी अग्निस्नान किया।

जौहर व्रत की प्रज्वलित लपटों के सम्मुख राजपूतों ने केसरिया वस्त्र धारण कर, पगड़ी में तुलसी टांग, गले में सालिगराम का गुटका टांग, कसुम्बा पान कर, कर किले का दरवाजा खोल दुश्मन सेना पर टूट पड़े और अपने खून का आखिरी कतरा बहने तक युद्ध करते रहे। इस तरह चितौड़ का यह दूसरा जौहर-शाका सम्पन्न हुआ। कहा जाता है इस युद्ध में इतना रक्तपात हुआ था कि रक्त का एक नाला बरसाती नाले की तरह किले से बह निकला था।

इस तरह रानी कर्मवती ने अपने अयोग्य पुत्र के शासन व उस काल चितौड़ बनबीर जैसे षड्यंत्रकारियों के षड्यंत्र के बीच अपनी सूझ-बूझ, रणनीति और बहादुरी से चितौड़ के स्वाभिमान, स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। ज्ञात हो इसी रानी के शिशु राजकुमार उदयसिंह के प्राण बचाने हेतु पन्ना धाय ने अपने पुत्र का बलिदान दे दिया था।

रूपमती और बाज बहादुर की प्रेमकथा

December 25, 2018 0
रूपमती और बाज बहादुर की प्रेमकथा
रूपमती और बाज बहादुर की प्रेमकथा




इतिहास के पन्नों में राजा और रानी के प्रेम की कई कहानियां है पर कुछ प्रेम कहानियां ऐसी हैं जिन्हें पढ़ने के बाद लोग हैरत में आ जाते हैं। मांडू (माण्डवगढ़) मध्यप्रदेश का एक ऐसा पर्यटनस्थल है, जो रानी रूपमती और बादशाह बाज बहादुर के अमर प्रेम का साक्षी है।

कहने को लोग मांडू को खंडहरों का गांव भी कहते हैं परंतु इन खंडहरों के पत्थर भी बोलते हैं और सुनाते हैं हमें इतिहास की अमर गाथा। ऐसी ही एक कहानी है रूपमती और बाज बहादुर की प्रेम कहानी। रूपमती किसान पुत्री थीं। वह एक अच्छी गायिका भी थीं। बाज बहादुर मांडु के अंतिम स्वतंत्र शासक थे।

सुल्तान बाज बहादुर उनसे बहुत प्रेम करते थे और वो रानी रूपमती के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। रूपमती की आवाज के मुरीद बाज बहादुर उन्हें दरबार में ले गए। दोनों परिणय सूत्र में बंध गए।

सुल्तान बाज बहादुर ने रानी रूपमती के लिए एक किला भी बनवाया था जो आज तक राजा बाज बहादुर और रानी रूपमती के प्यार का साक्षी है। रानी रूपमती को राजा बाज बहादुर इतना प्यार करते थे कि रानी रूपमती के बिना कुछ कहे ही वो उनके दिल की बात को समझ जाते थे।

लेकिन यह प्रेम कहानी जल्दी ही खत्म हो गई, जब मुग़ल सम्राट अकबर ने मांडु पर चढाई करने के लिए अधम खान को भेजा। बाज बहादुर ने अपनी छोटी-सी सेना के साथ उसका मुकाबला किया किंतु हार गए। अधम खान रानी रूपमती के सौंदर्य पर मर-मिटा, इससे पूर्व कि वह मांडु के साथ रूपमती को भी अपने कब्जे में लेता, रानी रूपमती ने विष सेवन करके मौत को गले लगा लिया।

सोहणी और महिवाल की प्रेम कहानी

December 25, 2018 0
सोहणी और महिवाल की प्रेम कहानी

सोहणी और महिवाल की प्रेम कहानी



पंजाब की ही धरती पर उगी एक प्रेम कथा है सोहनी-महिवाल की। सिंधु नदी के तट पर रहने वाले कुम्हार तुला की बेटी थी सोहनी। वह कुम्हार द्वारा बनाए गए बर्तनों पर सुंदर चित्रकारी करती थी।

उजबेकिस्तान स्थित बुखारा का धनी व्यापारी इज्जत बेग व्यापार के सिलसिले में भारत आया। सोहनी से मिलने पर वह उसके सौंदर्य पर मोहित हो उठा। 

सोहनी को देखने के लिए वह रोज सोने की मुहरें जेब में भरकर कुम्हार के पास आता और बर्तन खरीदता। सोहनी भी उसकी तरफ आकर्षित हो गई। बाद में इज्जत बेग सोहनी के पिता के घर भैंसों को चराने की नौकरी करने लगा। पंजाब में भैंसों को महियां कहा जाता है इसलिए भैंसों को चराने वाला इज्जत बेग महिवाल कहलाने लगा। दोनों की मुलाकात मोहब्बत में बदल गई।

जब सोहनी की मां को यह बात पता चली तो उन्होंने महिवाल को घर से निकाल दिया। सोहनी की शादी किसी और से कर दी गई। लेकिन महिवाल तो सोहनी के बिना जी नहीं सकता था। इसलिए महिवाल ने अपने खूने-दिल से लिखा खत सोहनी को भिजवा दिया। सोहनी ने जवाब दिया कि मैं तुम्हारी थी और तुम्हारी ही रहूंगी।

सोहनी के प्यार में पागल महिवाल अपना घर, देश भूलकर फकीर हो गया। मगर दोनों प्रेमियों ने मिलना नही छोड़ा। रोज जब रात में सारी दुनिया सोती, सोहनी नदी के उस पार महिवाल का इंतजार करती, जो तैरकर उसके पास आता।

महिवाल बीमार हुआ तो सोहनी एक पक्के घडे की मदद से तैरकर उससे मिलने पहुंचने लगी। सोहनी की ननद ने एक बार उन्हें देख लिया तो उसने पक्के घडे की जगह कच्चा घड़ा रख दिया। सोहनी ने जल्दबाजी में वह कच्चा घड़ा उठाया और महिवाल से मिलने निकल पड़ी।

प्यार में बैचेन सोहनी कच्चे घड़े द्वारा नदी पार करने लगी। घड़ा नदी के बीच में ही टूट गया और सोहनी डूबने लगी। महिवाल उसे बचाने के लिए नदी में कूदा लेकिन वह भी डूब गया। सुबह मछुआरों के जाल में दोनों के जिस्म मिले जो मर कर भी एक हो गए थे। इस तरह यह दुख भरी प्रेम कहानी खत्म हो गई।

पृथ्वीराज और संयोगिता की प्रेम कहानी

December 25, 2018 0
पृथ्वीराज और संयोगिता की प्रेम कहानी
पृथ्वीराज और संयोगिता की प्रेम कहानी




अजमेर के राजा सोमेश्वर और रानी कर्पूरी देवी के यहाँ सन 1149 में एक पुत्र पैदा हुआ। जो आगे चलकर भारतीय इतिहास में महान हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसे दिल्ली के अंतिम हिंदू शासक के रूप मे भी जाना जाता है। संयोंगिता कन्नौज के राजा जयचंद की पुत्री थी। वह बड़ी ही सुन्दर थी।

उसने पृथ्वीराज की वीरता के अनेक किस्से सुने थे इसलिए वो अपनी सहेलियों से भी पृथ्वीराज के बारे में जानकारियां लेती रहती थी। एक बार दिल्ली से पन्नाराय चित्रकार दिल्ली के सौंदर्य और राजा पृथ्वीराज के भी कुछ दुर्लभ चित्र लेकर कन्नौज राज्य में आया हुआ था। राजकुमारी संयोंगिता को जब यह पता चला तो उसने चित्रकार को अपने पास बुलाया और महाराज पृथ्वीराज का चित्र दिखाने का आग्रह किया।

पृथ्वीराज का चित्र देखते ही वो मोहित हो गयी। चित्रकार पन्नाराय ने राजकुमारी का चित्र बनाकर उसको पृथ्वीराज के सामने प्रस्तुत किया और राजकुमारी के मन की बात बताई जिन्हें सुनकर और चित्र देखकर पृथ्वीराज भी राजकुमारी संयोगिता पर मोहित हो गए।

दोनों का प्रेम परवान चढ़ रहा था लेकिन संयोगिता के पिता कन्नौज के महाराज जयचंद्र की पृथ्वीराज से दुश्मनी थी। जयचंद्र ने संयोगिता के स्वयंवर में पृथ्वीराज को नहीं बुलाया, उल्टा उन्हें अपमानित करने के लिए उनका पुतला दरबान के रूप में दरवाजे पर रखवा दिया। लेकिन पृथ्वीराज बेधड़क स्वयंवर में आए और सबके सामने राजकुमारी को उसकी सहमती से अगवा कर ले गए। राजधानी पहुंचकर दोनों ने शादी कर ली।

कहते हैं कि इसी अपमान का बदला लेने के लिए जयचंद्र ने मोहम्मद गौरी को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया। गौरी को 17 बार पृथ्वीराज ने हराया। 18वीं बार गौरी ने पृथ्वीराज को धोखे से बंदी बनाया और अपने देश ले गया, वहां उसने गर्म सलाखों से पृथ्वीराज की आंखे तक फोड़ दीं।

ग़ौरी ने पृथ्वीराज से अन्तिम ईच्‍छा पूछी। पृथ्वीराज के अभिन्न सखा चंदबरदायी ने कहा की पृथ्वीराज शब्द भेदी बाण छोड़ने में माहिर सूरमा है इसलिए इन्हें अपनी इस कला के प्रदर्शन की अनुमति दी जाएँ। ग़ौरी ने मंजूरी दे दी।

प्रदर्शन के दौरान ग़ौरी ने जैसे ही अपने मुंह से शाबास लफ्ज निकाला तो उसी समय चंदबरदायी ने पृथ्वीराज से कहा - चार बाँस चौबीस गज अंगुल अष्‍ठ प्रमाण, ता ऊपर है सुल्तान, मत चूको रे चौहान। इतना इशारा पाते ही अंधे पृथ्वीराज ने ग़ौरी की आवाज पर शब्दभेदी बाण छोड़ दिया। जिससे गौरी मारा गया। अपनी दुर्गति से बचने के लिए चंदबरदायी और पृथ्वीराज दोनों ने एक-दूसरे का वध कर दिया।

जब संयोगिता को इस बात की खबर मिली तो उन्होंने भी सती होकर जान दे दी। इस तरह इस प्रेम कहानी का अंत हो गया।